कस्तूरी कुंडल बसे दोहे का अर्थ एवं व्याख्या

कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि।
ऐसे घटी-घटी राम हैं दुनिया जानत नाँहि॥

शब्दार्थ

कस्तूरी = सुगन्धित द्रव्य

कुंडली = नाभि

बसे = बसना, रहना, व्याप्त

बन – वन, जंगल

घटी-घटी = कण-कण

इस दोहे की रचना कबीर दास जी ने की है।

कस्तूरी कुंडल बसे दोहे का व्याख्या

इस दोहे के माध्यम से कबीर दास कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार कस्तूरी ( जो कि एक सुगंधित द्रव्य होता है ) हिरण के नाभि में व्याप्त रहता है और उसकी सुगंध से आकर्षित होकर वह हिरण जंगल में इधर-उधर भागता रहता है और ढूंढता रहता है कि वह सुगंध कहां से आ रही है, उसी प्रकार मनुष्य भी भगवान को जगह जगह ढूंढता रहता है परंतु ईश्वर संसार के कण-कण में व्याप्त है यह बात मनुष्य समझ नहीं पाता।

यहां पर मनुष्य की तुलना उस हिरण से की गई है जो अपने अंदर व्याप्त गुणों को देख नहीं पाता समझ नहीं पाता और उसे ऐसा लगता है कि वह गुण उसका है ही नहीं बल्कि उसकी तलाश में वह जंगल जंगल भटकता है और उस स्रोत को ढूंढने का प्रयास करता है जिससे वह आकर्षित है।

मनुष्य भी शांति, सफलता तथा अन्य गुणों के प्रति आकर्षित है, इसलिए मनुष्य भी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा तथा अन्य ऐसे ही स्थलों पर भटकता रहता है कि कहीं उसे शांति मिल जाए या फिर सफलता का कोई चमत्कार मिल जाए। इस दिव्यता की तलाश में मनुष्य भी बहुत भटकता है परंतु उसे इतनी सी बात समझ नहीं आती की सारी चीजें उसके अंदर ही व्याप्त है, सारे गुण उसके अंदर ही हैं, अगर वह एक बार रुक ठहर कर देख ले तो उसे समझ में आ जाएगा कि उसे कहीं भटकने की जरूरत नहीं है। सभी गुण मनुष्य के अंदर ही व्याप्त है।

कस्तूरी कुंडल बसे दोहे द्वारा सीख

१. सभी गुण हमारे अंदर मौजूद है, वह हम ही हैं जो अपने आप को बेहतर बना सकते हैं।

२. ईश्वर संसार के कण-कण में मौजूद है, आपको ढूंढने की जरूरत नहीं परंतु महसूस करने की जरूरत है।

३. सफलता भी मनुष्य के भीतर छुपी है और शांति का उपाय भी स्वयं मनुष्य कर सकता है। परंतु इसके लिए उसे यह समझना पड़ेगा कि जिसे वह ढूंढ रहा है वह संसार के कण-कण में व्याप्त है एवं उसके भीतर सभी प्रकार के गुण मौजूद हैं।

४. मनुष्य स्वयं ही एक बहुत बड़ी रचना है परंतु यह बात वह समझ नहीं पाता।

५. हमें ऐसी वस्तु के प्रति आकर्षित नहीं होना चाहिए जो हम से बाहर है।

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दोहे का महत्व

आज के समाज में इस दोहे का महत्व बहुत बढ़ जाता है। आज मनुष्य मन की शांति प्राप्त करने के लिए क्या कुछ नहीं कर रहा है, जितने प्रकार के गलत काम हो सकते हैं सब मनुष्य द्वारा किए जा रहे हैं ताकि वह मन को कुछ देर के लिए शांत कर सके और अपनी असफलताओं से पीछा छुड़ा सके। मन की शांति को प्राप्त करने के लिए वह तरह-तरह के मार्ग खोज रहा है जो कि सब के सब गलत है और उसके बाहर बसते हैं।

अगर कबीर के दोहे को आज के समाज के हिसाब से उपयोग में लाया जाए तो

मनुष्य को सिर्फ बैठकर अपने मन को शांत करना है और यह समझना है कि ईश्वर संसार के कण-कण में मौजूद है और उसी प्रकार शांति एवं सफलता भी उसी के अंदर मौजूद है, उसे कहीं बाहर ढूंढने की जरूरत नहीं या फिर कहीं और भटकने की जरूरत नहीं बल्कि सिर्फ बैठकर महसूस करना है।

एक बार महसूस करने के बाद उसका मन शांत हो जाएगा और उसका दर-दर भटकना भी बंद हो जाएगा।

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